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JLF ने 500 किताबों के साथ शुरूआत की थी, आज आंकड़ा 1 लाख को पार कर चुका है- संजय के. रॉय

साहित्य की दुनिया में जयपुर लिटरेचर फेस्टविल ने बड़ी तेजी से अपने-आप को स्थापित किया है. आज जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल की वजह से देश-दुनिया के नामचीन लेखक, पत्रकार, विचारक और कलाकार हर साल गुलाबी नगरी में जुटते हैं. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सम्मानित लेखकों से हमें रूबरू होने का मौका मिलता है. जेएलएफ से पहले बुकर, नोबल आदि जैसे पुरस्कारों से सम्मानित लेखकों को केवल हम पढ़ते ही थे, लेकिन अब उनसे सीधे संवाद करते हैं, उनके विचार सुनते हैं.

जयपुर लिटरेचर फेस्टविल को साहित्य की दुनिया में शीर्ष पर पहुंचाने वालों का जिक्र होता है तो उनमें नमिता गोखले, विलियम डेलरिम्पल और संजय रॉय का नाम सबसे पहले आता है. इनमें संजय के. रॉय साहित्य के साथ-साथ, संगीत, रंगमंच और फिल्मी दुनिया में भी पूरा हस्तक्षेप रखते हैं. टीमवर्क आर्ट्स जैसी संस्था के माध्यम से संजय रॉय देश की विभिन्न संस्कृतियों को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर स्थापित करने का काम रहे हैं.

मैनेजमेंट की दुनिया से ताल्लुक और साहित्य में विशेष रुचि रखने वाले आशुतोष कुमार ठाकुर ने
संजय के. रॉय से जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल के बारे विस्तार से चर्चा की. प्रस्तुत है इस बातचीत के चुनिंदा अंश-

‘जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल’ को शुरू करने का विचार कैसे आया और इसके शुरुआती दौर में किन चुनौतियों का सामना करना पड़ा?

‘जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल’ को शुरू करने का विचार मुझे इंग्लैंड की एक यात्रा के दौरान आया, जहां मैंने वैश्विक स्तर पर मुख्यधारा में भारतीय साहित्य की कमी महसूस की. साहित्यिक रूप से हम शुरू से ही समृद्ध हैं, लेकिन हमारे पास इसे वैश्विक साहित्य समाज के समक्ष ले जाने के लिए उचित मंच नहीं थे. इस स्थिति को देखते हुए, हमने अपना पहला फेस्टिवल, ‘द एडिनबर्ग फेस्टिवल’ जो कि दुनिया का सबसे बड़ा उत्सव है, शुरू किया.

अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विस्तार करते हुए, हमने सिंगापुर में एक ऑफिस तैयार किया और स्प्लेंडिड थिएटर के साथ साझेदारी कर कई साहित्यिक उत्सवों का आयोजन किया. साल 2001-2002 में, जॉन सिंह ने एडिनबर्ग में हुए ‘हेरिटेज फेस्टिवल’ की सफलता को देखकर हमसे संपर्क किया. जॉन जयपुर में प्राचीन स्मारकों के संरक्षण और पुनर्स्थापन पर काम कर रहे थे.

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उन्होंने ‘हेरिटेज फेस्टिवल’ से प्रेरित होकर जयपुर में ‘विरासत’ नाम से एक उत्सव की शुरुआत की. ‘विरासत फेस्टिवल’ में उन्हें नमिता गोखले और विलियम डेलरिम्पल का साथ मिला. नमिता गोखले और विलियम डेलरिम्पल ने कई महत्वपूर्ण साहित्यिक सत्रों को सफलतापूर्वक क्यूरेट किया. नमिता और विलियम ने मुझसे और मेरी टीम (टीमवर्क आर्ट्स) से बातचीत करके ‘जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल’ की शुरुआत की. इस प्रकार जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल अस्तित्व में आया. इस साल जेएलएफ अपनी साहित्यिक यात्रा के 17 वर्ष पूरे किए हैं.

रही बात चुनौतियों की तो कोई भी बड़ा आयोजन करने के दौरान तमाम तरह की चुनौतियां रहती हैं. विश्वस्तर पर भारत की साख बनी रहे, कार्यक्रम के दौरान इस बात का खास ख्याल रखा जाता है. क्योंकि, जेएलएफ में बड़ी संख्या में विदेशी लेखक, पत्रकार, नेता और कलाकार आते हैं.

इस साल जब हम 17वां साहित्योत्सव आयोजित कर रहे थे तो मौसम हमारे सामने बड़ी चुनौती था. रविवार को लगातार बारिश के बावजूद भी फेस्टिवल अपने रौ में बना रहा. इसके बेहद महत्वपूर्ण सत्रों में ऑस्ट्रेलिया के पूर्व प्रधानमंत्री मैल्कम टर्नबुल की उपस्थिति और वैश्विक मुद्दों जैसे कि पर्यावरण, फिलिस्तीन के जलवायु संकट आदि पर लगातार महत्वपूर्ण बातचीत की शृंखला फेस्टिवल के लिए एक महत्वपूर्ण अनुभव था.

जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल ने क्षेत्रीय समस्याओं से लेकर अंतरराष्ट्रीय संबंधों तक की बात की. उदाहरण के रूप में रूस और यूक्रेन जैसे देशों की हालिया समस्याओं और चुनौतियों पर आधारित सत्रों को लिया जा सकता है.

सरहदों की स्थिति पर आधारित अजय बिसारिया की पुस्तक पर चर्चा ने महत्वपूर्ण आयाम जोड़े. इसी क्रम में बुकर पुरस्कार विजेता पॉल लिंच के जुड़ने से साहित्यिक संवाद का स्तर और अधिक समृद्ध हुआ. हम कह सकते हैं कि जेएलएफ का सत्रहवां संस्करण 550 से अधिक वक्ताओं के साथ विविध मुद्दों और उन पर व्यापक, गहन चर्चाओं के साथ बहुत खास और यादगार रहा.

जेएलएफ को आयोजित करते हुए आप बड़े नामों के साथ उभरते लेखकों को भी अवसर उपलब्ध कराने तथा विविध मुद्दों में संतुलन कैसे बनाते हैं?

जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल हमें एक अनोखा अवसर प्रदान करता है. फेस्टिवल में प्रतिभागी लेखकों की प्रसिद्धि के बावजूद आते हैं, जिससे हमें स्थापित नाम और उभरती प्रतिभाओं दोनों को प्रस्तुत करने की विशेष जिम्मेदारी मिलती है.

अगर आप गौर करें, तो आप अनुभव करेंगे कि बीते वर्षों में हमारे मंच पर लेखकों का बड़ा ग्रुप देखने को मिला है. फेस्टिवल में एक तरफ जहां आठ वर्ष के सबसे कम उम्र के लेखक को सराहा गया, वहीं दूसरी तरफ सबसे उम्रदराज लेखक को भी प्रस्तुत किया गया, जिन्होंने अपने लेखन की शुरुआत जीवन के 92वें बसंत देखने के बाद की. इस साल हमने एक 95 वर्षीय कवि को आमंत्रित किया था, जिन्होंने अपनी पहली पुस्तक लिखी.

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हम अकादमिक विषयों को भी गहराई से समझते हुए इनसे जुड़े विभिन्न महत्वपूर्ण विषयों पर सत्र आयोजित करते हैं. उदाहरण के तौर पर, ‘आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस’ और गणित जैसे समकालीन मुद्दों पर गहन चर्चाएं होती हैं. स्थापित और उभरते नामों का यह मिश्रण, हमारे विषयों की विविधता के साथ मिलकर यह सुनिश्चित करता है कि जेएलएफ एक समावेशी मंच बना रहे.

भारतीय साहित्य, अर्थात् अंग्रेजी और अन्य भाषाओं में उपलब्ध साहित्य की बाजार में स्थिति को लेकर आप क्या सोचते हैं? इसी के साथ, आपकी नजर में प्रकाशन उद्योगक में किस तरह के बदलाव होने वाले हैं?

अंग्रेजी और अन्य भाषाओं में उपलब्ध भारतीय साहित्य के वर्तमान परिदृश्य को देखते हुए, हम देख सकते हैं कि इसमें कई महत्वपूर्ण बदलाव हुए हैं, जिनमें अनुवादित साहित्य की महत्वपूर्ण भूमिका है.

पहले के अनुवादों की गुणवत्ता पर आधारित मूल अर्थ से कई सवाल उठते थे. लेकिन हाल ही में, नंदिनी अय्यर, अरुणावा सिन्हा और अन्य अनुवादक साहित्यकारों ने वैश्विक स्तर पर भारतीय साहित्य को नई ऊंचाइयों तक पहुंचाया है.

उन्होंने गुणवत्तापूर्ण रूप से अनूदित साहित्य के इस रूप के माध्यम से न केवल अंग्रेजी भाषा की साहित्यिक स्थिति को समृद्ध किया है, बल्कि अन्य भाषाओं जैसे कि स्पैनिश, पोलिश, रशियन, जर्मन और लैटिन आदि भाषाओं ने भी भारतीय अनुवादकों या भारतीय साहित्य के स्वागत में अपने दरवाजे खोले हैं.

दूसरी ओर, भारतीय प्रकाशन उद्योग में एक उल्लेखनीय बदलाव भी हुआ है. हम देख सकते हैं कि ‘डिजिटल’ और ‘फिजिकल’ दोनों ही फार्मेट में तेजी से बढ़ोत्तरी हुई है.

अंतरराष्ट्रीय स्तर पर किताबों के प्रकाशन में गिरावट की चिंता है, लेकिन भारत में प्रकाशन उद्योग 17-18 फीसदी की दर सालाना की दर से आगे बढ़ रहा है. इस मजबूत विकास से पुस्तकों की बिक्री में लगातार वृद्धि हो रही है. यह 17 साल पहले की तुलना में, आज बेहतर स्थिति में है.वर्तमान में 35-40 हजार हार्डकापी किताबों की बिक्री के साथ लेखक बेस्टसेलर हो रहा है, जो कि सुखद है.

यहां तक कि जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल खुद ही पुस्तकों की बिक्री में महत्वपूर्ण इजाफे का गवाह है. जहां शुरुआती दौर हम 500 किताबों के साथ आये थे और आज आंकड़ा एक लाख को पार कर चुका है.

आगे गौर करें तो प्रकाशन उद्योग के लिए डिजिटल युग को स्वीकार करना तथा सस्टेनेबल ऑनलाइन मॉडल्स को विकसित करना एक बड़ी चुनौती होगी.

यह ध्यान देने की बात है कि डिजिटल प्लेटफॉर्म के विकास की स्वीकार्यता के बावजूद भारत और एशिया में फीजिकल बुक्स के साथ एक ‘पुस्तकों का स्पर्श / सुगंध ‘ जैसी प्रचलित भावना जुड़ी है. भारतीय पाठकों के सन्दर्भ में किताबों को छूने, उसके पन्नों की खूश्बू से जुड़े अनुभव और बुकशेल्फ में सजाने की सौंदर्यबोध, पाठकों को हमेशा से आकर्षित करता रहा है.

आज, जब तकनीकी और व्यवसाय का अंतरसंबंध एक विशेष आयाम ले रहा है, बावजूद इसके, एक प्रकार का सांस्कृतिक जुड़ाव या यूं कहें कि भावनात्मक अनुनाद किताबों से जुड़ा हुआ है. जो अपनी तमाम खासियत के साथ भारतीय प्रकाशन में हमेशा बना रहेगा.

क्षेत्रीय भाषा के लेखकों की भागीदारी को जेएलेफ अपने आयोजनों में कैसे सुनिश्चित करता है?

जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल ने भाषाओं के विविधता को समाहित करते हुए, विभिन्न भाषाओं के क्षेत्रीय लेखकों को समान अवसर प्रदान करने का प्रयास किया है. अगर हम केवल 2022 के सत्र की बात करें, तो हमें 24 अलग-अलग भाषाएं देखने को मिलीं, जिसमें 16 भारतीय भाषाएं शामिल थीं.

जयपुर साहित्योत्सव पूरे साल की मेहनत के बाद ‘भाषाई इंद्रधनुष’ को अक्षुण्ण रखने के लिए प्रतिबद्ध है. आप देखेंगे कि ‘भाषाई समावेशन’ को ध्यान में रखते हुए जेएलएफ कविता के लिए ‘कन्हाईलाल साहित्य सम्मान’ प्रदान किया जाता है, जो आज एक महत्वपूर्ण पुरस्कार है. यह पुरस्कार विभिन्न भाषाओं की पृष्ठभूमि से जुड़े कवियों की कविताओं को पहचानते हुए उत्सव की पटकथा लिखता है. इससे फेस्टिवल की भाषाई सीमाओं को तोड़ने का संदेश भी समझा जा सकता है. यहां यह भी कहा जा सकता है कि भाषा की बंधनों को तोड़ती कविताएं अपने आप फेस्टिवल से स्वत: ही प्रेरित होकर आती हुई गले मिल जाती हैं.

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मनोरोजन ब्यापारी की कहानी को शामिल करना जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल का एक बेहद सशक्त उदाहरण है. एक रिक्शाचालक जो जेल गया और कारावास में पढ़ना-लिखना सीखा. यह एक बेहद प्रेरणादायी घटना है. प्रसिद्ध लेखक महाश्वेता देवी से उनकी भेट अचानक हुई थी. महाश्वेता देवी ने अपनी किताब इस रिक्शेवाले के हाथ में देखी. यह एक टर्निंग पॉइंट था, इस घटना के बाद, मनोरंजन ब्यापारी एक प्रतिष्ठित लेखक के रूप में देश दुनिया में सम्मानित हुए. यह कहानी इसी फेस्टिवल के दौरान सामने आई.

यह प्रकरण एक उदाहरण मात्र है जो यह समझाता है कि कैसे जेएलएफ दबी हुई दबी या बेताब आवाज़ों को समर्थित करता है. उनकी अनसुनी कहानियों को वैश्विक स्तर पर मजबूती से सामने लाता है. “मनोरंजन ब्यापारी” और “बेबी हलदार” की सफलता की कहानियां फेस्टिवल की क्षेत्रीय स्वरों को सशक्त करने का महत्वपूर्ण उदाहरण हैं.

जेएलएफ का प्रभाव केवल बड़ी संख्या में दर्शकों ही नहीं तय करता है, बल्कि यह बहुभाषाई स्तर पर बदलाव लाता है, जो भी महत्वपूर्ण कारक है. इस तरह के अनेक प्रयासों से जेएलएफ ने अनेक बंधनों को तोड़ा है और विभिन्न सांस्कृतिक पृष्ठभूमियों की धनक को साहित्य की मुख्य धारा से जोड़ा है.

जेएलएफ शुरू करते हुए या बाद में आपने किस तरह की चुनौतियों या विवादों का सामना किया?

किसी भी फेस्टिवल के आयोजन में बहुत-सी चुनौतियां आती हैं. कुछ नया शुरू करते समय आपको अपनी क्षमता, विकास, दर्शकों में रूचि पैदा करना और संसाधन जुटाने जैसे तमाम बिंदुओं को ध्यान में रखना पड़ता है. हमारे मामले में हम भाग्यशाली थे कि हमें शुरूआत में ही डिग्गी पैलेस का पूरा सहयोग मिला. इसके साथ राम प्रताप और ज्योतिका इस सफर में अटूट सहयोग की भावना लिए हर कदम पर हमारे साथ रहे.

डिग्गी पैलेस के एक छोटे से सभागार में कुछ 230 कुर्सियों और 3 कमरों से जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल की यात्रा शुरू हुई.

समय के साथ यह बहुत बड़े स्पेस में बदल गया. अब इस बदलाव के गवाह दर्शकों से खचाखच भरा कई हाल और सौ कमरे थे. इस ट्रांसफार्मेशन में हमें बहुत अलग-अलग तरह के और कुछ तो कमाल के अनुभव हुए. फेस्टिवल के विकास में हर किसी का योगदान बेहद अहम है.

विवादों के बावजूद हमारे शुरुआती सालों में सलमान रुश्दी का हमारे साथ होना, एक पैनल में आशीष नंदी की टिप्पणियां और तसलीमा नसरीन की सहभागिता, यह सब इसलिये विशेष रूप से ध्यान देने की बात है ताकि सनद रहे कि तमाम विवादों के बावजूद इन सब से कहीं दूर फेस्टिवल अपनी सार्थकता के नये अध्याय रचता रहा.

असल जो फेस्टिवल की आत्मा से जुड़ी बात है, वह है इसका ‘कंटेंट’. सबसे ज्यादा उत्साह इस बात का है कि जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल वाइब्रेंट है और लोग इससे लगातार जुड़ रहे हैं और यह लोगों से जुड़ा हुआ है.

क्या आप अपने जीवन से जुड़ी कुछ ऐसी बातों पर प्रकाश डालना चाहेंगे जो आपके प्रारंभिक जीवन से जुड़ी हों और कला-सांस्कृतिक क्षेत्र में आपकी रूचि कैसे बनी या फिर ऐसा क्या था जो आपको प्रभावित करते हुये इस क्षेत्र तक ले आया?

मेरे शुरुआती वर्षों में कला और सांस्कृतिक क्षेत्र में मेरी रूचि का श्रेय सेंट स्टीफन कॉलेज को दिया जाना चाहिए. वहां पर बिताए गए समय को अगर देखें तो वहां मैं प्रसिद्ध थियेटर निर्देशक बैरी जॉन के नेतृत्व में संचालित ग्रुप से जुड़ा, वहां मैंने ‘टैग’ (TAG) यानी थियेटर ऐक्शन ग्रुप के कार्यकारी निर्देशक की भूमिका में कई सालों तक रहा. इन्हीं क्षणों में मेरे और मेरी भावी पत्नी पुनीता के साथ रोचक सफर की पटकथा लिखी गई.

जब शादी की बात उठी तो मेरे ससुर जी ने थियेटर में मेरे करियर को लेकर अपने विचार रखते मेरी योग्यता पर सवाल उठाये. मैंने बड़े आत्मविश्वास के साथ कहा कि पुनीता एक बड़ी कंपनी में मैनेजर हैं. यह हम दोनों के लिए काफी अच्छा सपोर्ट है. इस प्रतिक्रिया के साथ मैं उन्हें बहुत प्रभावित तो नहीं कर पाया. यह मेरे करियर की दिशा के लिहाज से बहुत अहम बिंदु था. यहां से जो हुआ जिसे आप देख रहे हैं.

1989 में टीमवर्क आर्ट्स की स्थापना का ख्याल कैसे आया और किस तरह से यह कंपनी लगातार आगे बढ़ती रही?

अस्सी के दशक के मध्य में, जब ‘महाभारत’ और ‘हम लोग’ जैसे टेलीविजन धारावाहिक प्रसिद्ध हुये, तो टीवी प्रोफेशनल्स की भी जरूरत महसूस हुई. उसी समय मैंने बाबी बेट्टी के साथ टीम तैयार की, जिसने आगे चलकर ‘द राइजिंग’ जैसी फिल्मों पर काम किया. ‘एलिफेंट’ जैसे शो करते हुए हमने टीवी प्रोडक्शन के साथ काम शुरू किया. इसी का प्रतिफल है कि जिससे आगे चलकर यह मुहीम ‘टीमवर्क आर्ट्स’ के रूप में सामने आया. शुरुआती दिनों में हमने अपने थियेटर मित्रों के लिए रोजगार उपलब्ध कराने का काम किया. प्रारंभ से ही हमने टीवी और फिल्मों पर फोकस करते हुये ‘चूना दम लगा के’, ‘न्यूज़ लाइन’, ‘तोल मोल के बोल’ जैसे हिट्स बनाये.

1995 में 14-15 डेली सोप्स और गेम शोज के साथ हम जुड़े.1995 में हमने कला में विविधता की जरूरत को अनुभव किया .हमारे साथी मोहित सत्यानंद, कनिका सत्यानंद और वाल शिप्ले के साथ मिलकर हमने ‘इंडियन ओशन’ और मोहित चौहान जैसे टैलेंट को सामने लाते हुये ‘फ्रेंड्स आफ म्यूजिक’ की नींव डाली.

इस सफलता से प्रेरित होकर हमने फिर धीरे-धीरे थियेटर में विस्तार किया. नये लेखकों और अदिति मंगलदास और दक्षा सेठ जैसे कलाकारों को भी सहयोग किया. मैं कह सकता हूं कि, थियेटर से टेलीविजन और टेलीविजन से विस्तृत कला और संस्कृति तक की यह यात्रा, रोचक, दिलचस्प और संतोषप्रद रही.

“शाहजहांबाद द ट्विलाइट इयर्स” के लिये एक्सिलेंस ऐंड बेस्ट डायरेक्टर के तौर पर नेशनल अवार्ड जीतना एक बड़ी उपलब्धि है. क्या आप इस फिल्म के निर्माण प्रक्रिया और इसके प्रभाव के बारे में कुछ कहना चाहेंगे?

टेलीविजन से डाक्यूमेंट्रीज के ट्रांजिशन के दौरान हमारी टीम का फोकस इतिहास और संस्कृति पर था. हमने शाहजहांबाद, जो कि दिल्ली का एक पुराना शहर है, को केंद्र में रखकर चार भाग में सीरिज बनाई. हर एपिसोड ने इसके आर्किटेक्चर, खान -पान, परिधान और जीवन शैली को उजागर किया.

यह 1857 से 1947 के दौर की कहानी है जो यहां के लोगों की आँखोंदेखी और मुँहजबानी है. सौ सालों में हुए इस शहर का विकास और यहां की सांस्कृतिक यात्रा को दिखाना अपने आप में बेहद मनोरम और यादगार यात्रा का अनुभव है.

(संजॉय के. रॉय से आशुतोष कुमार ठाकुर ने यह बातचीत मूलतः अंग्रेजी में हैं, जिसका हिंदी में अनुवाद युवा लेखिका और शोधछात्र आकृति विज्ञा अर्पण द्वारा किया गया है.)

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24x7 Punjab
Author: 24x7 Punjab

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