पटना. लोकसभा स्पीकर के चुनाव को लेकर विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ के नेताओं को उम्मीद है कि नीतीश कुमार शायद उनका साथ दे दें. लोकसभा चुनाव के परिणाम आने के बाद से ही विपक्ष नीतीश कुमार पर लार टपकाता रहा है. खैर, जून महीने के आखिरी चार-पांच दिन नीतीश कुमार की विश्वसनीयता के परीक्षण के होंगे. यह अवधि 26 से लेकर 30 जून के बीच की होगी. इसी बीच यह पता चल जाएगा कि बार-बार पीएम नरेंद्र मोदी के पांव छूने की बिहार के सीएम और जेडीयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष नीतीश कुमार की कोशिश क्या वाकई उनका मानसिक पश्चाताप थी या फिर इसके पीछे उनकी कोई कूटनीति काम कर रही है. यह भी कि वे पहले जैसे जुबान के कच्चे निकल जाएंगे या इस बार वे अपनी जुबान पर खरे उतरते हैं. कच्ची जुबान की आशंका इसलिए कि नीतीश में पहले ऐसी कमजोरी दिखती रही है. अपने राजनीतिक जीवन में उन्होंने इधर-उधर आवाजाही भी खूब की. हालांकि, हाल के लोकसभा चुनाव के दौरान मौदी की मौजूदगी में हुई सभाओं में उन्होंने वचन दिया है कि अब वे कहीं नहीं जाएंगे. पर, वे पहले भी जिसके साथ रहे, उसके बारे में भी ऐसा ही कहते रहे हैं. उनका वह वीडियो क्लिप आज भी घूम फिर कर वायरल हो जाता है, जब वे आरजेडी के साथ रहते अक्सर कहा करते थे- ‘मर जाएंगे, लेकिन अब भाजपा के साथ नहीं जाएंगे. फर्क सिर्फ इतना ही है कि इस बार उन्होंने जनता से यही कह कर वोट मांगे कि अब वे कहीं नहीं जाएंगे. आखिरी दम तक इन्हीं (भाजपा) के साथ अब रहना है.
भाजपा के आगे नतमस्तक होना नीतीश का पश्ताचाप
नीतीश कुमार इस बार जो कुछ कर रहे हैं, यह उनकी पूर्व की गलतियों का पश्चाताप अधिक लगता है. भाजपा के तीसरे बड़े सहयोगी दल जेडीयू के नेता नीतीश कुमार ने इस बार भले-बुरे सब में भाजपा के साथ रहने का न सिर्फ वादा किया है, बल्कि अभी तक अपने वचन पर वे कायम भी हैं. उन्होंने साफ कह दिया है कि सरकार में सबसे बड़ी पार्टी भाजपा है तो वह जैसे देश चलाए, हम उसके साथ रहेंगे. इस कसौटी पर वे पहली बार खरे उतरे हैं. नरेंद्र मोदी ने अपने मंत्रिमंडल में जेडीयू को जितनी सीटें दीं, जैसी दीं, नीतीश ने कोई ना-नुकुर नहीं किया. वे चुप रहे. उनके दल के मंत्रियों ने भी अपने विभाग को लेकर कोई गिला-शिकवा नहीं की. हालांकि अभी तो नीतीश के सिर्फ 12 सांसद हैं, लेकिन 2019 के लोकसभा चुनाव में जब उनके 16 लोग जीत गए थे तो उन्होंने जेडीयू के लिए एक मंत्री पद ठुकरा दिया था. कहा तो यह भी था कि जेडीयू का कोई सांसद मंत्री नहीं बनेगा. हालांकि बाद में जेडीयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष रहते आरसीपी सिंह ने नीतीश की मर्जी के खिलाफ मंत्री पद स्वीकार कर लिया था. बाद में आरसीपी का क्या हस्र हुआ, यह सभी जानते हैं. नीतीश ने उन्हें दोबारा राज्यसभा नहीं भेजा. उन्हें पार्टी से बाहर का रास्ता भी दिखा दिया था.
स्पीकर के लिए चुनाव होना तय, क्या बदलेंगे नीतीश !
लोकसभा स्पीकर के चयन के लिए भी नीतीश ने भाजपा को खुली छूट दे दी है. नीतीश का स्टैंड क्लियर है कि सरकार में बड़ी पार्टी होने के नाते भाजपा जिसे स्पीकर बनाए, उनकी पार्टी की उस पर सहमति होगी. भाजपा ने तमाम चर्चाओं पर विराम लगाते हुए स्पीकर का नाम अब घोषित कर दिया है. ओम बिरला को ही भाजपा ने फिर मौका दिया है. विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ को ओम बिरला पर एतराज नहीं है, लेकिन डेप्युटी स्पीकर का पद विपक्ष मांग रहा है. भाजपा ने ओम बिरला के लिए सबसे मदद मांगी है, लेकिन डेप्युटी स्पीकर पर किसी को कोई आश्वासन नहीं दिया है. इससे खफा होकर विपक्ष ने के. सुरेश का नाम स्पीकर के रूप में आगे कर दिया है. यानी विपक्ष आखिरी वक्त तक सुरेश की स्पीकर पद की उम्मीदवारी पर अड़ा रह जाता है तो चुनाव की नौबत तय है. विपक्ष के नरम रुख अपनाने की उम्मीद नहीं दिखती. इसकी सबसे बड़ी वजह लोकसभा में उसका ताकतवर बन कर इस बार उभरना है. अब पहले जैसी स्थिति नहीं है. वोटिंग से स्पीकर चयन की नौबत आती है तो एनडीए के वैसे सहयोगी दल, जिनके मन में भाजपा के प्रति कहीं कोई गुस्सा है तो उसके फूटने का इंतजार विपक्ष को है. इसी क्रम में नीतीश कुमार पर भी विपक्षी खेमा लगातार दबाव डालता रहा है. जेडीयू के राष्ट्रीय प्रवक्ता केसी त्यागी ने विपक्ष की कोशिश का यह कह कर भांडा ही फोड़ दिया था कि नीतीश को पीएम पद का ऑफर दिया गया. खैर, नीतीश को स्पीकर चुनाव की परीक्षा में भी पास होना है.
जेडीयू राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक 29 जून को होगी
नीतीश ने अपनी पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक 29 जून को दिल्ली में बुलाई है. बैठक के बारे में कुछ लोगों का अनुमान है कि नीतीश भाजपा की नकेल कसने के लिए कोई चौंकाने वाला फैसला ले सकते हैं. हालांकि, अभी तक की स्थिति देखते हुए इसकी आशंका निर्मूल हो गई है. पर, नीतीश के अतीत को देखते हुए खतरे को सिरे से खारिज भी नहीं किया जा सकता. पता नहीं, उनकी अंतरात्मा कब जाग जाए. वे अक्सर कहते हैं कि अंतरात्मा की बात सुन कर ही वे कोई फैसला लेते हैं. मसलन भाजपा और आरजेडी के साथ उनकी आवाजाही जब-जब हुई, उन्होंने अंतरात्मा की आवाज पर ही वैसा किया. हालांकि नीतीश किसी से नाराज होते हैं तो उसके संकेत भी पहले से देने लगते हैं. जब भाजपा के बड़े नेताओं से वे कन्नी काटने लगें तो समझ जाना चाहिए कि वे खेमा बदलने की तैयारी में हैं. यही काम वे आरजेडी से अलग होने के पहले भी करते रहे हैं. शायद इसीलिए लालू प्रसाद यादव उनके बारे में कहते रहे हैं कि नीतीश के दांत आंत में हैं. कार्यकारिणी की बैठक पर भी सबकी नजर है.
भाजपा के साथ पूरे तन-मन से इस बार जुड़े हैं नीतीश
इस बार नीतीश भाजपा के साथ पूरे तन-मन से हैं. उनके इधर-उधर होने की आशंका भी अब कम ही दिखती है. इसकी दो वजहें हैं. अव्वल तो वे अपने करियर और उम्र के आखिरी पड़ाव पर हैं. उनकी कोई चिंता अगर होगी भी तो अपने लिए कम, जेडीयू के लिए अधिक होगी. इतना तो तय है कि नीतीश बिहार नहीं छोड़ना चाहते हैं. एनडीए में रह कर वे ज्यादा सुरक्षित हैं . उनकी कुर्सी को कोई खतरा नहीं है. उन्हें आरजेडी की तरह भाजपा को यह दिलासा देने की जरूरत नहीं है कि 2025 का विधानसभा चुनाव किसके नेतृत्व में लड़ा जाएगा. उल्टे भाजपा ने ही उन्हें आश्वस्त कर दिया है कि 2025 का विधानसभा चुनाव भी नीतीश के नेतृत्व में ही लड़ा जाएगा. राजनीति में किसी के कुछ कहे या वादे का कोई मोल नहीं होता, लेकिन बिहार में हालात ऐसे हैं कि नीतीश का साथ सबको भाता है. आरजेडी उन पर धोखा देने का आरोप भले लगाए, लेकिन लोकसभा चुनाव के नतीजे आने के बाद जिस तरह लालू परिवार के सदस्यों ने उनसे इंडिया ब्लाक में लौट आने का आग्रह किया, उससे साफ है कि आरजेडी को भी अकेले बिहार फतह की उम्मीद नहीं है. पर, नीतीश शायद ही अब आरजेडी के सथ जाएं. इसलिए कि साथ रहते जिस तरह आरजेडी का उन पर सीएम की कुर्सी छोड़ने का दबाव था, वही उनको रोकेगा.
(ओमप्रकाश अश्क स्वतंत्र पत्रकार हैं। आलेख में व्यक्त विचार उनके निजी हैं)
ओमप्रकाश अश्क
प्रभात खबर, हिंदुस्तान और राष्ट्रीय सहारा में संपादक रहे. खांटी भोजपुरी अंचल सीवान के मूल निवासी अश्क जी को बिहार, बंगाल, असम और झारखंड के अखबारों में चार दशक तक हिंदी पत्रकारिता के बाद भी भोजपुरी के मिठास ने बांधे रखा. अब रांची में रह कर लेखन सृजन कर रहे हैं.